Sunday, March 28, 2010

त्रासदी


आज मेरा रिटायरमेंट हो गया। दफ्तर से घर आ गई हूँ। पार्टी में सहकर्मियों के आत्मीयता पूर्ण शब्दों को दुहरा रही हूँ। पिछले तेंतीस वर्षों की ज़िन्दगी के खट्टे मीठे पल आँखों के आगे आ जा रहे हैं पर इनमें न सुख है न दुःख – एक रस खालीपन ...... अपने पर हॅसी आती है....... समय क्या इतना निर्विकार बना देता है? सोचा लेट जाँऊ। अचानक दरवाजे की घंटी बजी – देखा, शुभा थी...... मेरी पड़ोसन ...... सफेद बाल, भारी शरीर, मोटी बड़ी बड़ी आँखें, हल्का सांवला रंग..... पर वह मुझे बहुत प्रिय थी....... नाम के अनुरूप सब शुभ चाहने वाली...... गहन गम्भीर .... पर पर अपनी मोटी मोटी आँखों में अपने तनाव को ज़रा सा भी नहीं छुपा पाती। किसी से कहती कुछ नहीं थी, कभी भी। बस जिसे जो सोचना हो सोच ले। आकर मेरे पास बैठ गई। मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर बोली- दुविधा में हुँ दीदी- एक मन आपके रिटायरमेंट पर बधाई देने को हो रहा है......... दूसरी तरफ मन में आपके शब्द गूँज रहे हैं...... ‘शुभा, नौकरी ही आराम है। घर की सारी टेंशन कर्मक्षेत्र में भूलनी पड़ती हैं और कर्मक्षेत्र के तनाव घर में भूलने होते हैं यों ज़िन्दगी तनाव रहित हो जाती है या कर लेते हैं और नये उत्साह से फिर जुट जाते हैं- एक सुखद संकल्प के साथ’। तो बताओ क्या करूँ....... अच्छा एक बार तो बधाई दे ही दूँ ...... मैं मुस्करा उठी ‘शुभा ! दिल को परे रख दिमाग से सोच – नौकरी सदा थोड़े रहती है। यह दिन तो नौकरी लगने के साथ ही तय था, आना था आ गया ...... अब नये ढंग से प्लान करुँगी’। वह बोली दीदी क्या प्रशांत के पास चली जाओगी........’सोचा नहीं है वह तो बहुत आग्रह कर रहा है, किंतु यहाँ वर्षों की गृहस्थी है। विपिन नहीं रहे तब भी घर तो है ना, रिश्ते हैं कुछ दूर के, कुछ पास के ही सही। पास है पड़े हैं, तुम्हारे जैसी सखी है। यहाँ सड़के अपनी है, सब्जीवाला, फलवाला, धोबी, महरी सब अपने लगते हैं। इन सब को छोड़ कर जाना आसान है क्या? प्रशांत मेरा अपना बेटा है बहुत प्यारा और दुलारा.....मुझे जी जान से चाहने वाला तुम जानती ही हो पर- शुभा उसका तो समय भी अपना नहीं है........सुबह 9 बजे घर से निकलता है मीलों ड्राईव कर कम्पनी पहुँचता है, देर रात थकामांदा घर लौटता है, बहु का भी कमोबेश यही रुटीन है। पोता डे बोर्डिंग स्कूल मे है सो वह भी शाम को ही आ पाता है। वहाँ उसके पास उस मकान में.......उस आलीशान मकान में, मैं क्या करूंगी......लगता रहेगा मै भी एक सामान हुँ- चलता फिरता सामान जो एक कमरे से दूसरे कमरे में, वहाँ से किचिन में और किचिन से बालकनी में लुढ़कता रहता है। बता? जाऊँ ....... चली जाऊँ? वह कुछ नहीं बोली, मैं भी चुप हो गई लगा वह "अन्यमयस्क सी है। मुझे कुछ ध्यान आया..... ‘चल शुभा पानी तो पी और मिठाई खा’ मै उठने लगी तो बोली बैठिये अभी कुछ नहीं चाय पी कर ही आई हूँ..... असल में प्रेमचन्द की किताब पढ रही थी..... लिखा था ‘भाई तो बचपन के ही होते हैं’ मैं वहीं ठहर गयी। किताब बन्द कर सोचा- भाई तो बचपन के होते हैं पर क्या माता पिता भी बच्चों के लिये बचपन के ही होते हैं? मैने गहरी और भरपूर नज़र उसके चेहरे पर गड़ा दी आज वह फिर आन्दोलित है यह अनुमान लगाते मुझे देर ना लगी। गत दस वर्षों से वह मेरी पड़ोसन थी- सरह ह्र्द्य़ा; दूसरों के हित के लिये बिछ जाने वाली, फिर मौन अपनी किताबों मे अपने लेखन में डूबी रहने वाली। उसके भीतर वेदना का ज्वालामुखी धधकता रहता है यह कोई नहीं जानता था। मुझे भी अहसास नहीं था। एक दिन उस ज्वलामुखी से कुछ लपटें अचानक निकल पड़ी।
छुट्टी का दिन था। यों ही मैं उसके घर पहुँच गई। ड्राइंगरूम की सज्जा बदली हुई थी। आमूल चूल। सराहना कर पाँऊ उसके पहले ही बोली- निक्की ने बदली है। उसका स्वर संयत पर उदास था। मेरी निगाह उसके चेहरे पर पड़ी......शायद रोई होगी थोड़ी देर पहले। हल्की सी छाया उसके आँखों में थी। आवेग को रोकना उसके बस में नहीं रहा। बोली – दीदी, मृत्यु से तन मन के रिश्ते तो छूट जाते हैं पर जिन चीज़ों से हम रिश्तों की दोर को थामें रहना चाहते हैं उन्हें भी हमारे अपने हमारे सामने से हटा देना चाहते हैं। मुझे समझते देर न लगी कि इस कमरे में ऎसा कुछ सामान था जो उसके पति ने बड़े मन से लाकर सजाया था वह अब हटा दिया गया है। उसे लग रहा है जैसे उसके पति की तस्वीर को उसके मन की गहराइयों से भी खुरच खुरच कर हटाया जा रहा है।
उसकी मनोदशा को दूसरी ओर मोड़ने के इरादे से मैने कहा ‘शुभा, निक्की को लग रहा होगा कि सामानों को देखकर तुम विचलित होती हो और अतीत में ही खोई रहती हो- यह बदलाव तुम्हें उस खोयेपन से निकालने का उपक्रम है। वह कुछ नहीं बोली। उसकी खमोशी मे मेरी खमोशी भी साझीदार बनी। बस उसका हाथ मैने अपने हाथ में ले लिया। यकायक उसने अपना हाथ धीरे से खींचा और अपने पुराने और संयत सिमटे हुए रूप में आ गई...... खैर छोड़िये दीदी इसी बहाने निक्की अपने आप को व्यस्त रखे हुए है। कुछ समय नौकरी मे निकल जाता है, बाकी इस तरह के उलटफेर में। मेरा दुःख से उसका दुःख ज़्यादा बडा है। आप तो जानती ही हैं ज़िससॆ प्रॆम किया, विवाह किया- उसी से तलाक लेना पड़ा। वह पत्नी नहीं है, बच्चे नहीं हुए तो माँ भी नहीं है। अपनी कोई गृहस्थी नहीं तो गृहणी भी नहीं है पर समस्त संवेगों से भरी युवा नारी तो है। पूर्णता पाने की ललक से भरी। शायद इसी तरह वह अपने गृहणीत्व की अभिव्यक्ति कर रही है।
दीदी मेरा क्या है, अपने को समेट लूँगी, पहले भी समेटा है। छिनने का दुःख मैं जानती हूँ, मेरे पास तो वर्षों तक सब कुछ था, पर एक दिन सब छिन गया। ईश्वर ने कुछ नहीं छीना, निक्की भी युवा हो गई और मैं..... मैं उसकी माँ न रह कर एक अलग औरत भर रह गई। मुझे पता भी नहीं चला। वह अपनी सहपाठी, निकटतम सखी के रिश्ते में लगने वाले भाई से प्यार कर बैठी। सहेली के घर जाने के सौ बहाने थे। बात बढ़ती चली गई चुपचाप। यहाँ तक कि उसने अकेले दम शादी क फैसला कर लिया। शादी का दिन भी तय था। तीन दिन पहले उसने मुझे बताया।
मेरे तो जैसे खून का प्रवाह ही रुक गया था। फिर भी अपने को समेटा और कहा तुम प्यार का मतलब भी समझती हो? फिर शादी कोई खेल नहीं है। इस तरह का निर्णय करते वक्त तुमने पापा और परिवार पर क्या बीतेगी, ये सोचा? क्या हम तुम्हारी शादी नहीं करवा पाते? उस परिवार और लड़के मे मुझे तो ऐसा कुछ नज़र नहीं आता कि तुम इतना बड़ा फैसला ले लो। बेटा अभी भी..... मैं आगे कुछ बोल पाती निक्की दृढ़ स्वर में बोली- मम्मी आप कब तक हमें बच्चा समझती रहोगी? मै बालिग हूँ वह बालिग है यह हमारा निजी मामला है और इस पर फैसला लेने का मुझे पूरा अधिकार है। मुझे लगा दीदी मेरे सामने मेरी बेटी नहीं कानून की धारा खड़ी है और बिना अपराध के जैसे मुझे मुजरिम कहा जा रहा था
मेरी जड़ता घबराहट में तब्दील होने लगी और मेरे सामने एक और समस्या मुँह बाए खड़ी हो गई अब। अब ..... यह बात मैं अपने पति से कैसे कहूँगी। मेरा पति जो निक्की का पिता है.....बचपन में उसकी हंसी देखकर हंसने वाला, आँसू देखकर बेचैन हो जाने वाला, स्कूल, क़ॉलेज की चिंता करने वाला, अब संतान के ब्याह के सुखद सपने देखने वाला, अपनी सामर्थ्य से ज़्यादा संतान को सुखी रखने का जतन करने वाला...... यशस्वी दामाद और स्वर्गिक सुखों ज़्यादा सुखों वाला परिवार ढूँढ़्ने की आकांक्षा पालने वाला पिता- उससे कैसे कहूँगी? पर न कहने से भी तो काम नहीं चलता। जैसे तैसे हिम्मत जुटा कर कहा- यह कहना नहीं था.... उन पर मर्मांतक आघात था... प्रतिक्रिया मे वे कुछ बोल नहीं सके मुझे देखते रहे जैसे जाँच रहे हों- क्या यह सच है? मेरी घबराहट कहूँ या छ्ट्पटाहट वाली स्थिति और दुःख से निचुड़ी काया ने उन्हें सच का बोध करवा दिया तो पूछा- किससे और मेरे बताने पर अपना सारा संतुलन खोकर मुझ पर बरस पड़े- कैसी माँ हो तुम? तुमसे एक लड़की भी नहीं सँभली...... अपने माँ होने पर तुम्हें शर्म आनी चाहिये..... बड़ी बड़ी मनोविज्ञान की बात करतीं थी। ये उनके शब्द मात्र नहीं थे इन शब्दों से मेरे मातृत्व की साधना एक मे भस्म हो गई और पत्नीत्व की जड़ें हिल गई।
मेरे और उनके लाख समझाने पर भी निक्की नहीं मानी..... उसका वह प्रेम नहीं जुनून था जो रक्त के रिश्तों पर भारी पड़ गया। उसने विवाह कर लिया।
अवसाद की आग में, मेरे और मेरे पति के रिश्ते आधे अधूरे हो गये। उनके मन में वितृष्णा का जो ज्वार उठा उसने मेरे पत्नीत्व को एक किनारे पटक दिया, मातृत्व तो लांछित हो ही चुका था। वे अवसाद की ऎसी अवस्था मे पहुँच चुके थे जहाँ केवल मौन पसरा रह सकता था। दीदी- दुःख तो हमारा साझा था पर उन्हें कैसे समझाती, मै समझाती हूँ इंसान जब टूट जाता है तब साझेपन का अहसास कहाँ रहता है? उनके वात्सल्य की घोर उपेक्षा हुई थी और पिता होने के अधिकार को जैसे चुनौती मिली थी.... दोनों को ही उनका पौरुष नहीं झेल पा रहा था- मेरा दुःख कौन बांटता? मैने ही अपने को किरच किरच जोड़ा और सहेजने में लग गई। पर कहाँ सहेज पाई? नाते रिश्तों से विरत वे संसार से ही चले गये। एक ही ह्र्दयाघात में। मैं पथराई आखों से सब देखती रही.... अब भी देख रही हूँ लौटी हुई निक्की को.... उसकी त्रासदी को.... जो मेरी त्रासदी से भी बड़ी है- वह लौट कर उसी आंचल में अपने लिये छाया ढूँढ रही है जिसे उसने ही झुलसाया था।
मेरे पास शुभा को समझाने और सांत्वना देने के लिये कुछ नहीं था।