तब
शाम होते ही अखिल आएगे दफ़्तर का काम निबटा कर……. मुझे हँसी आ जाती है…… दफ़्तर का काम निबटा कर.....ओवर टाइम करने….अच्छा ओवरटाइम है.....जिसमे पैसा मिलता नही, खर्च होता है.....अरे होने दो क्या फ़र्क पड़ता है उनके बाप ने बेहिसाब छोड़ा है मेरे उपर खर्च करते है, करें उनके बाप पर मेरा पिछले जन्म का क़र्ज़ रहा होगा .....दादी कहती थी.....उफ़ ये दादी कहाँ से आ धमकी.... खैर.... हाँ तो अखिल आएँगे उन्हें अनावश्यक शब्दों से लगाव नही है वो तो कॉल बेल बजाने की बजाए मोबाइल की मिस कॉल से दरवाजा खुलवाते हैं ईव्निंग की यह मिस कॉल मेरे लिए कॉल बेल का काम करती है और मैं इसकी अभ्यस्त हो चुकी हूँ घड़ी देखती हूँ, अभी देर है, दीवान पर लेट जाती हूँ आखों में कल की खनक है.....चाय पीते हुए उन्होने अचानक मेरे बालों को सहलाते हुए कहा- “ बालों ने बिखरी हल्की चाँदी.....तुम कितनी ग्रेस्फुल लगती हो.....इनमे कितनी शाइन है.....” उनके हाथों की सहलाहट की अनुभूति से मेरे आखें मूंद जाती हैं- चाँदी.....चाँदी.....भीतर सुख ही नही दर्प भी है और गर्व भी- अपने को मेनटेन रखने का अचानक बंद आखों के सामने दादी फिर से आ खड़ी हुईं..... “अरी बावली ये चाँदी नही धूप है धूप बिखरने लगी है और धूप बिखरते ही आगे पीछे सब साफ दिखाई देने लगता है, पर तू आखें खोले तब ना” मुझे खीज होने लगती है मैं दादी से कहती हूँ- अरे दादी मर कर तो पीछा छोड़ दो राख हुए तो मिट्टी से नाता रखो, जीवन मे अड़ंगा मत डालो, पर तुम कहाँ मानती हो? बदलती दुनिया के साथ तुम कहाँ चली? माँ को भी भाषण दे दे कर अपने रंग मे रंग लिया अच्छा हुआ मैने तुम्हारी एक ना सुनी, जिस तिस पर रख कर मुझे सुनाती रहती थीं और उसे समझना कहतीं थीं भला गिरने के डर से रुक जाएँ क्या.....ना बाबा अपने बस की बात नही…… हाँ तो अखिल आएँगे वे मेरे मित्र नही हैं उन्होने ही कहा था “मित्र नही बोलना ये बहुत भोला और बुर्जुआ शब्द है आज भी अपनी सीमाएँ बनाकर बैठा है इससे छल करो तो ये थरथराने लगता है, कभी तमतमाने लगता है इसे अपनी सीमाए और वर्जनाए बहुत प्यारी है हम तो सारी वर्जनाए तोड़ चुके हैं ये तोड़ना भी एक तरफ़ा नही है मैं संबंधो में ईमानदारी निभाता हूँ, पर प्यार किसी क़ानून का मोहताज नही है समाज के क़ानून क़ायदे तो व्यैक्तिक्ता का दम घोटकर रख देते हैं अपने लिए तो जीने ही नही देते निजता तो जैसे इनके लिए कुछ है ही नही” अचानक फ़ोन की घंटी बजी और बंद हो गयी… अखिल ही थे अब मुझे पता है हम चाय पिएँगे फिर गाड़ी मैं बैठ कर यूही निकल पड़ेंगे थोड़ी देर पार्क मैं बैठेंगे, किसी रेस्तूरेंट मैं बैठ कर कॉफी पिएँगे या आइस्क्रीम खाएँगे और शून्य निगाहों से आस पास को ताकेंगे उनके पास मुझसे पूछने को कुछ नही होता मैं ही पूंछती हूँ उनकी बीबी और बच्चे के बारे में.....और आज मेरे पुंछे बगैर वे बोले – “कल नही आ पाऊँगा, वाइफ की माँ बीमार है सो उसे कल वहाँ ले जाऊँगा”..... उनका हाथ मेरी गर्दन को घेरे हुए ही और दबाव मैं महसूस कर सकती हूँ...... अच्छा ले जाना, अभी कल होने मैं देर है कल होने मैं देर है- मेरे भीतर गूंजने लगा….. ये शब्द भी मरे अपनी ताक़त दिखाने से बाज नही आते…. इनकी गिरफ़्त से बाहर निकलना कितना मुश्किल हैकल के आगे भी कल और कल के पीछे भी कल पीछे के कल के पीछे भी एक कल था.... निश्चल भी मेरा कल था पर उसके बीबी बच्चे नही थे बात तो दोस्ती से ही शुरू हुई थी..... उम्र मे भी वह मुझसे छोटा था.... मेरी नौकरी नई थी, शहर नया था, दफ़्तर से घर घर से दफ़्तर नये शहर मे मेरा कोई अपना ना था निश्चल ऑडिट करने दफ़्तर आता था उससे जान पहचान और प्रगाड़ता बढ़ी… मेरे ख़ालीपन मे यह भरावन था धीरे यह भरावन अच्छा लगने लगा अच्छे को और अच्छा बनते देर ना लगी हम देर देर तक साथ रहते, साथ खाते और साथ साथ पिक्चर देखते, घूमते, फिरते मुझे लगता मेरे कमरे की छत और दीवारों पर इंद्रधनुष निकल आएँ हैं…. इन्ही इंद्रधनुषों के बीच एक दिन आग को हवा ने अपनी गिरफ़्त मे ले लिया आँधी थमने पर मेरे माँ ने मुझे धिक्कारा भी.... दादी की आँखों से आँसू बहने लगे.... बहते रहे.... उम्र मे छोटा होते हुए भी बड़े दार्शनिक अंदाज मे उसीने कहा “ तुम अभी तक बीसवीं सदी के कौन से हिस्से मे जी रही हो? भूख लगने पर खाना खा लेना क्या कोई अपराध है?मैं तुम पर कोई बंदिश नही लगाऊगा, ना तुम मुझ पर किसी बंदिश की अपेक्षा करना जीवन कितना छोटा है, हम यों ही घुट घुट कर उसे गुज़ार दे तो गुज़ारें, किसी को क्या फ़र्क पड़ता है बिंदास जीने का हक हमें भी है, सुख उठाने का हक हमे भी है युरोप अमेरिका और अपने यहाँ के बड़े बड़े शहरों को देखो…. लिव इन पार्ट्नरशिप का जमाना आ गया है सो डियर लिव इन पार्ट्नरशिप एंड चियर-अप…. चलो कहीं कॉफी पीने चलते है” मैं उस पल हंस नही पायी… शब्द मुझसे अपनी व्याख्या जो करवाते रहते हैं उस पल भी शब्दों की तोड़ा फोड़ी चल पड़ी क्या कोई भी ऐसा संबंध है जहाँ पार्ट्नरशिप के बिना रहा जा सके? समाज के सारे स्वीकृत संबंधों मे ‘लिव इन पर्मनेंट पार्ट्नरशिप’ का भाव है फिर इस लिव इन पार्ट्नरशिप मे क्या नया हैनिश्चल ने मुझे फिर झकझोरा “डियर पार्ट्नर कहाँ खोई हो? चलो बाहर घूम कर आते है अपने को अपराधी मान कर कोई नही जी सकता अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए नये जमाने मे बहुत से शब्द है शब्दों से मेरी वाकफियत कितनी हुई मुझे नही पता पर ज़िंदगी मे अपनी रफ़्तार पकड़ ली..... सुबह होते ही हम अपने अपने हिस्से के काम निबटते और दफ़्तर जाते शाम को हमारे हाथों में किसी ढाबे या रेस्तराँ के फूड या फास्ट फूड की थैलियां और डिब्बे होते और हम घर पर भी कैंडल लाइट डिनर लेते मेरी क्रॉकरी उसे बहुत पसंद थी काँच की हल्की फूलों वाली प्लेटें रंग बिरंगे ग्लास और छोटे बड़े प्याले उसे कभी गिफ्ट लानी होती तो भी नई से नई डिज़ाइन की काँच की क्रॉकरी ही लाता चाहे इसके लिए उसे बाज़ार की कितनी ही खाक क्यों ना छाननी पड़े यूँ काँच के बर्तनों में इजाफा होता रहा समय दौड़ रहा था या हम, पता नही छह-सात साल निकल गये इस दौरान हमारे काँच के बर्तन तो कम फूटे पर हमारी ‘लिव इन पार्ट्नरशिप’ की डेथ हो गयी इस डेथ के लिए ना उसने मुझे ज़िम्मेदार ठहराया ना मैने उसे बहुत ही शांत डेथ थी उस पर ना वह रोया ना मैं उसने अपना समान समेटा और ओके टेक केयर कह कर वह भाववहीन आँखो से मुझे देखता हुआ चला गया..... मैं दरवाजे पर खड़ी उसकी पीठ देखती रही शायद वहाँ ‘लिव इन पार्ट्नरशिप’ का अर्थ लिखा था महीनों बाद अखिल मिले..... ट्रांसफर पर आए थे शादी शुदा एक बच्चे के पिता थे और मुझसे उम्र मे भी दस साल बड़े होंगे उनके साथ ऐसी अंतरंगता का विचार रंच मात्र भी मेरे मन मैं नही था उनकी प्रखर बुद्धि और कार्यलयी दक्षता का सम्मान मेरे मन मैं जड़ें जमा रहा था और वे उलझे हुए कार्यालयी मसलों पर मेरे तर्कों से प्रभावित थे मुझे लगता मेरी मेघाविता का कोई तो कद्रदान है उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया और पत्नी तथा बच्चे से मिलाया उनकी पत्नी सरल और भली महिला थी, बच्चा प्यारा और कुशाग्र.....यूँ आने जाने का सिलसिला चला इसी सिलसिले में अखिल अकेले भी मेरे घर आने लगे.....संबंध नया रूप ले रहे थे तय नही कर पायी अखिल के साथ अपने संबंध को क्या नाम दूँ? अपने से झूंठ कैसे बोलूं? मेरा मन मेरा ही उपहास कर रहा था..... ‘पार्ट टाइम लिव इन पार्ट्नर’ ठीक रहेगा.....उपहास को मैने पचा लिया तब से वे मेरे ‘पार्ट टाइम लिव इन पार्ट्नर’ थे उनकी पत्नी से मुझे कोई शिकायत नहीं थी हमारी पार्ट्नरशिप ठीक चल रही थी
संबंधों का सच अजाना नही था, पर उन्हे निर्वस्त्र देखना आसान होता है क्या? अखिल और मैं रंग बिरंगी रोशनियों से नहाई सड़क पार कर रेस्तराँ की तरफ बढ़ रहे थे कि अखिल के कुछ परिचित मिल गये वे उनसे बात करने लगे मुझसे परिचय करवाना अखिल के लिए शायद गैर ज़रूरी था सो मैं पास की दुकान से अखिल के बेटे के लिए कहानी की किताब खरीदने घुस गयी बात करके अखिल रेस्तराँ की ओर तेज़ कदमो से बढ़ चले थे, मैं भी दुकान से निकलकर बढ़ने को ही थी कि सुनाई दिया “अरे यार ये इसकी बीबी नही.....रखैल.....क्या वो मिस्ट्रेस है “, और एक ठहाका .....मिस्ट्रेस, मिस्ट्रेस...... मिस्ट्रेस मेरे भीतर गूँजे जा रहा था पाँवो बीच जैसे कोई मोटी रस्सी आ गयी तो ‘लिव इन पार्ट्नरशिप’ का एक अर्थ यह भी है…… अचानक दादी ही आवाज़ आई…….’बिटिया अब भी संभल जा अँग्रेज़ी बोलने से शब्दों का निहितार्थ नही बदलता जिन सुखों को हीरा समझ कर तूने अपने झोले मे रखा है वे पत्थर है और अपने बोझ से तेरे झोले को फाड़ कर रास्ते मैं ही गिर जाएँगे और जब तू थक कर बैठेगी तो आसपास तेरे जैसे ही थके मान्दे लोग होंगे कौन किसे उठाएगा?” मैं तेज़ कदमो से रेस्तराँ की ओर बढ़ी अखिल भीतर मुझे ना देख लौट रहे थे मैने कहा “ मेरा सिर अचानक दुखने लगा है प्लीज़ मुझे घर छोड़ दो.....”
अखिल मुझे घर छोड़ कर, सरदर्द की गोली देकर चले गये हैं.....कल वे नहीं आएगें, पर ‘कल’ तो आएगा.....ज़रूर आएगा ‘कल’ के बाद भी ‘कल’ और उसके बाद भी ‘कल’ तब?
हवाओं में ध्वनियों की गूँज क्या कभी रुकती है?