Sunday, March 28, 2010

त्रासदी


आज मेरा रिटायरमेंट हो गया। दफ्तर से घर आ गई हूँ। पार्टी में सहकर्मियों के आत्मीयता पूर्ण शब्दों को दुहरा रही हूँ। पिछले तेंतीस वर्षों की ज़िन्दगी के खट्टे मीठे पल आँखों के आगे आ जा रहे हैं पर इनमें न सुख है न दुःख – एक रस खालीपन ...... अपने पर हॅसी आती है....... समय क्या इतना निर्विकार बना देता है? सोचा लेट जाँऊ। अचानक दरवाजे की घंटी बजी – देखा, शुभा थी...... मेरी पड़ोसन ...... सफेद बाल, भारी शरीर, मोटी बड़ी बड़ी आँखें, हल्का सांवला रंग..... पर वह मुझे बहुत प्रिय थी....... नाम के अनुरूप सब शुभ चाहने वाली...... गहन गम्भीर .... पर पर अपनी मोटी मोटी आँखों में अपने तनाव को ज़रा सा भी नहीं छुपा पाती। किसी से कहती कुछ नहीं थी, कभी भी। बस जिसे जो सोचना हो सोच ले। आकर मेरे पास बैठ गई। मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर बोली- दुविधा में हुँ दीदी- एक मन आपके रिटायरमेंट पर बधाई देने को हो रहा है......... दूसरी तरफ मन में आपके शब्द गूँज रहे हैं...... ‘शुभा, नौकरी ही आराम है। घर की सारी टेंशन कर्मक्षेत्र में भूलनी पड़ती हैं और कर्मक्षेत्र के तनाव घर में भूलने होते हैं यों ज़िन्दगी तनाव रहित हो जाती है या कर लेते हैं और नये उत्साह से फिर जुट जाते हैं- एक सुखद संकल्प के साथ’। तो बताओ क्या करूँ....... अच्छा एक बार तो बधाई दे ही दूँ ...... मैं मुस्करा उठी ‘शुभा ! दिल को परे रख दिमाग से सोच – नौकरी सदा थोड़े रहती है। यह दिन तो नौकरी लगने के साथ ही तय था, आना था आ गया ...... अब नये ढंग से प्लान करुँगी’। वह बोली दीदी क्या प्रशांत के पास चली जाओगी........’सोचा नहीं है वह तो बहुत आग्रह कर रहा है, किंतु यहाँ वर्षों की गृहस्थी है। विपिन नहीं रहे तब भी घर तो है ना, रिश्ते हैं कुछ दूर के, कुछ पास के ही सही। पास है पड़े हैं, तुम्हारे जैसी सखी है। यहाँ सड़के अपनी है, सब्जीवाला, फलवाला, धोबी, महरी सब अपने लगते हैं। इन सब को छोड़ कर जाना आसान है क्या? प्रशांत मेरा अपना बेटा है बहुत प्यारा और दुलारा.....मुझे जी जान से चाहने वाला तुम जानती ही हो पर- शुभा उसका तो समय भी अपना नहीं है........सुबह 9 बजे घर से निकलता है मीलों ड्राईव कर कम्पनी पहुँचता है, देर रात थकामांदा घर लौटता है, बहु का भी कमोबेश यही रुटीन है। पोता डे बोर्डिंग स्कूल मे है सो वह भी शाम को ही आ पाता है। वहाँ उसके पास उस मकान में.......उस आलीशान मकान में, मैं क्या करूंगी......लगता रहेगा मै भी एक सामान हुँ- चलता फिरता सामान जो एक कमरे से दूसरे कमरे में, वहाँ से किचिन में और किचिन से बालकनी में लुढ़कता रहता है। बता? जाऊँ ....... चली जाऊँ? वह कुछ नहीं बोली, मैं भी चुप हो गई लगा वह "अन्यमयस्क सी है। मुझे कुछ ध्यान आया..... ‘चल शुभा पानी तो पी और मिठाई खा’ मै उठने लगी तो बोली बैठिये अभी कुछ नहीं चाय पी कर ही आई हूँ..... असल में प्रेमचन्द की किताब पढ रही थी..... लिखा था ‘भाई तो बचपन के ही होते हैं’ मैं वहीं ठहर गयी। किताब बन्द कर सोचा- भाई तो बचपन के होते हैं पर क्या माता पिता भी बच्चों के लिये बचपन के ही होते हैं? मैने गहरी और भरपूर नज़र उसके चेहरे पर गड़ा दी आज वह फिर आन्दोलित है यह अनुमान लगाते मुझे देर ना लगी। गत दस वर्षों से वह मेरी पड़ोसन थी- सरह ह्र्द्य़ा; दूसरों के हित के लिये बिछ जाने वाली, फिर मौन अपनी किताबों मे अपने लेखन में डूबी रहने वाली। उसके भीतर वेदना का ज्वालामुखी धधकता रहता है यह कोई नहीं जानता था। मुझे भी अहसास नहीं था। एक दिन उस ज्वलामुखी से कुछ लपटें अचानक निकल पड़ी।
छुट्टी का दिन था। यों ही मैं उसके घर पहुँच गई। ड्राइंगरूम की सज्जा बदली हुई थी। आमूल चूल। सराहना कर पाँऊ उसके पहले ही बोली- निक्की ने बदली है। उसका स्वर संयत पर उदास था। मेरी निगाह उसके चेहरे पर पड़ी......शायद रोई होगी थोड़ी देर पहले। हल्की सी छाया उसके आँखों में थी। आवेग को रोकना उसके बस में नहीं रहा। बोली – दीदी, मृत्यु से तन मन के रिश्ते तो छूट जाते हैं पर जिन चीज़ों से हम रिश्तों की दोर को थामें रहना चाहते हैं उन्हें भी हमारे अपने हमारे सामने से हटा देना चाहते हैं। मुझे समझते देर न लगी कि इस कमरे में ऎसा कुछ सामान था जो उसके पति ने बड़े मन से लाकर सजाया था वह अब हटा दिया गया है। उसे लग रहा है जैसे उसके पति की तस्वीर को उसके मन की गहराइयों से भी खुरच खुरच कर हटाया जा रहा है।
उसकी मनोदशा को दूसरी ओर मोड़ने के इरादे से मैने कहा ‘शुभा, निक्की को लग रहा होगा कि सामानों को देखकर तुम विचलित होती हो और अतीत में ही खोई रहती हो- यह बदलाव तुम्हें उस खोयेपन से निकालने का उपक्रम है। वह कुछ नहीं बोली। उसकी खमोशी मे मेरी खमोशी भी साझीदार बनी। बस उसका हाथ मैने अपने हाथ में ले लिया। यकायक उसने अपना हाथ धीरे से खींचा और अपने पुराने और संयत सिमटे हुए रूप में आ गई...... खैर छोड़िये दीदी इसी बहाने निक्की अपने आप को व्यस्त रखे हुए है। कुछ समय नौकरी मे निकल जाता है, बाकी इस तरह के उलटफेर में। मेरा दुःख से उसका दुःख ज़्यादा बडा है। आप तो जानती ही हैं ज़िससॆ प्रॆम किया, विवाह किया- उसी से तलाक लेना पड़ा। वह पत्नी नहीं है, बच्चे नहीं हुए तो माँ भी नहीं है। अपनी कोई गृहस्थी नहीं तो गृहणी भी नहीं है पर समस्त संवेगों से भरी युवा नारी तो है। पूर्णता पाने की ललक से भरी। शायद इसी तरह वह अपने गृहणीत्व की अभिव्यक्ति कर रही है।
दीदी मेरा क्या है, अपने को समेट लूँगी, पहले भी समेटा है। छिनने का दुःख मैं जानती हूँ, मेरे पास तो वर्षों तक सब कुछ था, पर एक दिन सब छिन गया। ईश्वर ने कुछ नहीं छीना, निक्की भी युवा हो गई और मैं..... मैं उसकी माँ न रह कर एक अलग औरत भर रह गई। मुझे पता भी नहीं चला। वह अपनी सहपाठी, निकटतम सखी के रिश्ते में लगने वाले भाई से प्यार कर बैठी। सहेली के घर जाने के सौ बहाने थे। बात बढ़ती चली गई चुपचाप। यहाँ तक कि उसने अकेले दम शादी क फैसला कर लिया। शादी का दिन भी तय था। तीन दिन पहले उसने मुझे बताया।
मेरे तो जैसे खून का प्रवाह ही रुक गया था। फिर भी अपने को समेटा और कहा तुम प्यार का मतलब भी समझती हो? फिर शादी कोई खेल नहीं है। इस तरह का निर्णय करते वक्त तुमने पापा और परिवार पर क्या बीतेगी, ये सोचा? क्या हम तुम्हारी शादी नहीं करवा पाते? उस परिवार और लड़के मे मुझे तो ऐसा कुछ नज़र नहीं आता कि तुम इतना बड़ा फैसला ले लो। बेटा अभी भी..... मैं आगे कुछ बोल पाती निक्की दृढ़ स्वर में बोली- मम्मी आप कब तक हमें बच्चा समझती रहोगी? मै बालिग हूँ वह बालिग है यह हमारा निजी मामला है और इस पर फैसला लेने का मुझे पूरा अधिकार है। मुझे लगा दीदी मेरे सामने मेरी बेटी नहीं कानून की धारा खड़ी है और बिना अपराध के जैसे मुझे मुजरिम कहा जा रहा था
मेरी जड़ता घबराहट में तब्दील होने लगी और मेरे सामने एक और समस्या मुँह बाए खड़ी हो गई अब। अब ..... यह बात मैं अपने पति से कैसे कहूँगी। मेरा पति जो निक्की का पिता है.....बचपन में उसकी हंसी देखकर हंसने वाला, आँसू देखकर बेचैन हो जाने वाला, स्कूल, क़ॉलेज की चिंता करने वाला, अब संतान के ब्याह के सुखद सपने देखने वाला, अपनी सामर्थ्य से ज़्यादा संतान को सुखी रखने का जतन करने वाला...... यशस्वी दामाद और स्वर्गिक सुखों ज़्यादा सुखों वाला परिवार ढूँढ़्ने की आकांक्षा पालने वाला पिता- उससे कैसे कहूँगी? पर न कहने से भी तो काम नहीं चलता। जैसे तैसे हिम्मत जुटा कर कहा- यह कहना नहीं था.... उन पर मर्मांतक आघात था... प्रतिक्रिया मे वे कुछ बोल नहीं सके मुझे देखते रहे जैसे जाँच रहे हों- क्या यह सच है? मेरी घबराहट कहूँ या छ्ट्पटाहट वाली स्थिति और दुःख से निचुड़ी काया ने उन्हें सच का बोध करवा दिया तो पूछा- किससे और मेरे बताने पर अपना सारा संतुलन खोकर मुझ पर बरस पड़े- कैसी माँ हो तुम? तुमसे एक लड़की भी नहीं सँभली...... अपने माँ होने पर तुम्हें शर्म आनी चाहिये..... बड़ी बड़ी मनोविज्ञान की बात करतीं थी। ये उनके शब्द मात्र नहीं थे इन शब्दों से मेरे मातृत्व की साधना एक मे भस्म हो गई और पत्नीत्व की जड़ें हिल गई।
मेरे और उनके लाख समझाने पर भी निक्की नहीं मानी..... उसका वह प्रेम नहीं जुनून था जो रक्त के रिश्तों पर भारी पड़ गया। उसने विवाह कर लिया।
अवसाद की आग में, मेरे और मेरे पति के रिश्ते आधे अधूरे हो गये। उनके मन में वितृष्णा का जो ज्वार उठा उसने मेरे पत्नीत्व को एक किनारे पटक दिया, मातृत्व तो लांछित हो ही चुका था। वे अवसाद की ऎसी अवस्था मे पहुँच चुके थे जहाँ केवल मौन पसरा रह सकता था। दीदी- दुःख तो हमारा साझा था पर उन्हें कैसे समझाती, मै समझाती हूँ इंसान जब टूट जाता है तब साझेपन का अहसास कहाँ रहता है? उनके वात्सल्य की घोर उपेक्षा हुई थी और पिता होने के अधिकार को जैसे चुनौती मिली थी.... दोनों को ही उनका पौरुष नहीं झेल पा रहा था- मेरा दुःख कौन बांटता? मैने ही अपने को किरच किरच जोड़ा और सहेजने में लग गई। पर कहाँ सहेज पाई? नाते रिश्तों से विरत वे संसार से ही चले गये। एक ही ह्र्दयाघात में। मैं पथराई आखों से सब देखती रही.... अब भी देख रही हूँ लौटी हुई निक्की को.... उसकी त्रासदी को.... जो मेरी त्रासदी से भी बड़ी है- वह लौट कर उसी आंचल में अपने लिये छाया ढूँढ रही है जिसे उसने ही झुलसाया था।
मेरे पास शुभा को समझाने और सांत्वना देने के लिये कुछ नहीं था।

Friday, October 10, 2008

तब


शाम होते ही अखिल आएगे दफ़्तर का काम निबटा कर……. मुझे हँसी आ जाती है…… दफ़्तर का काम निबटा कर.....ओवर टाइम करने….अच्छा ओवरटाइम है.....जिसमे पैसा मिलता नही, खर्च होता है.....अरे होने दो क्या फ़र्क पड़ता है उनके बाप ने बेहिसाब छोड़ा है मेरे उपर खर्च करते है, करें उनके बाप पर मेरा पिछले जन्म का क़र्ज़ रहा होगा .....दादी कहती थी.....उफ़ ये दादी कहाँ से आ धमकी.... खैर.... हाँ तो अखिल आएँगे उन्हें अनावश्यक शब्दों से लगाव नही है वो तो कॉल बेल बजाने की बजाए मोबाइल की मिस कॉल से दरवाजा खुलवाते हैं ईव्निंग की यह मिस कॉल मेरे लिए कॉल बेल का काम करती है और मैं इसकी अभ्यस्त हो चुकी हूँ घड़ी देखती हूँ, अभी देर है, दीवान पर लेट जाती हूँ आखों में कल की खनक है.....चाय पीते हुए उन्होने अचानक मेरे बालों को सहलाते हुए कहा- “ बालों ने बिखरी हल्की चाँदी.....तुम कितनी ग्रेस्फुल लगती हो.....इनमे कितनी शाइन है.....” उनके हाथों की सहलाहट की अनुभूति से मेरे आखें मूंद जाती हैं- चाँदी.....चाँदी.....भीतर सुख ही नही दर्प भी है और गर्व भी- अपने को मेनटेन रखने का अचानक बंद आखों के सामने दादी फिर से आ खड़ी हुईं..... “अरी बावली ये चाँदी नही धूप है धूप बिखरने लगी है और धूप बिखरते ही आगे पीछे सब साफ दिखाई देने लगता है, पर तू आखें खोले तब ना” मुझे खीज होने लगती है मैं दादी से कहती हूँ- अरे दादी मर कर तो पीछा छोड़ दो राख हुए तो मिट्टी से नाता रखो, जीवन मे अड़ंगा मत डालो, पर तुम कहाँ मानती हो? बदलती दुनिया के साथ तुम कहाँ चली? माँ को भी भाषण दे दे कर अपने रंग मे रंग लिया अच्छा हुआ मैने तुम्हारी एक ना सुनी, जिस तिस पर रख कर मुझे सुनाती रहती थीं और उसे समझना कहतीं थीं भला गिरने के डर से रुक जाएँ क्या.....ना बाबा अपने बस की बात नही…… हाँ तो अखिल आएँगे वे मेरे मित्र नही हैं उन्होने ही कहा था “मित्र नही बोलना ये बहुत भोला और बुर्जुआ शब्द है आज भी अपनी सीमाएँ बनाकर बैठा है इससे छल करो तो ये थरथराने लगता है, कभी तमतमाने लगता है इसे अपनी सीमाए और वर्जनाए बहुत प्यारी है हम तो सारी वर्जनाए तोड़ चुके हैं ये तोड़ना भी एक तरफ़ा नही है मैं संबंधो में ईमानदारी निभाता हूँ, पर प्यार किसी क़ानून का मोहताज नही है समाज के क़ानून क़ायदे तो व्यैक्तिक्ता का दम घोटकर रख देते हैं अपने लिए तो जीने ही नही देते निजता तो जैसे इनके लिए कुछ है ही नही” अचानक फ़ोन की घंटी बजी और बंद हो गयी… अखिल ही थे अब मुझे पता है हम चाय पिएँगे फिर गाड़ी मैं बैठ कर यूही निकल पड़ेंगे थोड़ी देर पार्क मैं बैठेंगे, किसी रेस्तूरेंट मैं बैठ कर कॉफी पिएँगे या आइस्क्रीम खाएँगे और शून्य निगाहों से आस पास को ताकेंगे उनके पास मुझसे पूछने को कुछ नही होता मैं ही पूंछती हूँ उनकी बीबी और बच्चे के बारे में.....और आज मेरे पुंछे बगैर वे बोले – “कल नही आ पाऊँगा, वाइफ की माँ बीमार है सो उसे कल वहाँ ले जाऊँगा”..... उनका हाथ मेरी गर्दन को घेरे हुए ही और दबाव मैं महसूस कर सकती हूँ...... अच्छा ले जाना, अभी कल होने मैं देर है कल होने मैं देर है- मेरे भीतर गूंजने लगा….. ये शब्द भी मरे अपनी ताक़त दिखाने से बाज नही आते…. इनकी गिरफ़्त से बाहर निकलना कितना मुश्किल हैकल के आगे भी कल और कल के पीछे भी कल पीछे के कल के पीछे भी एक कल था.... निश्चल भी मेरा कल था पर उसके बीबी बच्चे नही थे बात तो दोस्ती से ही शुरू हुई थी..... उम्र मे भी वह मुझसे छोटा था.... मेरी नौकरी नई थी, शहर नया था, दफ़्तर से घर घर से दफ़्तर नये शहर मे मेरा कोई अपना ना था निश्चल ऑडिट करने दफ़्तर आता था उससे जान पहचान और प्रगाड़ता बढ़ी… मेरे ख़ालीपन मे यह भरावन था धीरे यह भरावन अच्छा लगने लगा अच्छे को और अच्छा बनते देर ना लगी हम देर देर तक साथ रहते, साथ खाते और साथ साथ पिक्चर देखते, घूमते, फिरते मुझे लगता मेरे कमरे की छत और दीवारों पर इंद्रधनुष निकल आएँ हैं…. इन्ही इंद्रधनुषों के बीच एक दिन आग को हवा ने अपनी गिरफ़्त मे ले लिया आँधी थमने पर मेरे माँ ने मुझे धिक्कारा भी.... दादी की आँखों से आँसू बहने लगे.... बहते रहे.... उम्र मे छोटा होते हुए भी बड़े दार्शनिक अंदाज मे उसीने कहा “ तुम अभी तक बीसवीं सदी के कौन से हिस्से मे जी रही हो? भूख लगने पर खाना खा लेना क्या कोई अपराध है?मैं तुम पर कोई बंदिश नही लगाऊगा, ना तुम मुझ पर किसी बंदिश की अपेक्षा करना जीवन कितना छोटा है, हम यों ही घुट घुट कर उसे गुज़ार दे तो गुज़ारें, किसी को क्या फ़र्क पड़ता है बिंदास जीने का हक हमें भी है, सुख उठाने का हक हमे भी है युरोप अमेरिका और अपने यहाँ के बड़े बड़े शहरों को देखो…. लिव इन पार्ट्नरशिप का जमाना आ गया है सो डियर लिव इन पार्ट्नरशिप एंड चियर-अप…. चलो कहीं कॉफी पीने चलते है” मैं उस पल हंस नही पायी… शब्द मुझसे अपनी व्याख्या जो करवाते रहते हैं उस पल भी शब्दों की तोड़ा फोड़ी चल पड़ी क्या कोई भी ऐसा संबंध है जहाँ पार्ट्नरशिप के बिना रहा जा सके? समाज के सारे स्वीकृत संबंधों मे ‘लिव इन पर्मनेंट पार्ट्नरशिप’ का भाव है फिर इस लिव इन पार्ट्नरशिप मे क्या नया हैनिश्चल ने मुझे फिर झकझोरा “डियर पार्ट्नर कहाँ खोई हो? चलो बाहर घूम कर आते है अपने को अपराधी मान कर कोई नही जी सकता अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए नये जमाने मे बहुत से शब्द है शब्दों से मेरी वाकफियत कितनी हुई मुझे नही पता पर ज़िंदगी मे अपनी रफ़्तार पकड़ ली..... सुबह होते ही हम अपने अपने हिस्से के काम निबटते और दफ़्तर जाते शाम को हमारे हाथों में किसी ढाबे या रेस्तराँ के फूड या फास्ट फूड की थैलियां और डिब्बे होते और हम घर पर भी कैंडल लाइट डिनर लेते मेरी क्रॉकरी उसे बहुत पसंद थी काँच की हल्की फूलों वाली प्लेटें रंग बिरंगे ग्लास और छोटे बड़े प्याले उसे कभी गिफ्ट लानी होती तो भी नई से नई डिज़ाइन की काँच की क्रॉकरी ही लाता चाहे इसके लिए उसे बाज़ार की कितनी ही खाक क्यों ना छाननी पड़े यूँ काँच के बर्तनों में इजाफा होता रहा समय दौड़ रहा था या हम, पता नही छह-सात साल निकल गये इस दौरान हमारे काँच के बर्तन तो कम फूटे पर हमारी ‘लिव इन पार्ट्नरशिप’ की डेथ हो गयी इस डेथ के लिए ना उसने मुझे ज़िम्मेदार ठहराया ना मैने उसे बहुत ही शांत डेथ थी उस पर ना वह रोया ना मैं उसने अपना समान समेटा और ओके टेक केयर कह कर वह भाववहीन आँखो से मुझे देखता हुआ चला गया..... मैं दरवाजे पर खड़ी उसकी पीठ देखती रही शायद वहाँ ‘लिव इन पार्ट्नरशिप’ का अर्थ लिखा था महीनों बाद अखिल मिले..... ट्रांसफर पर आए थे शादी शुदा एक बच्चे के पिता थे और मुझसे उम्र मे भी दस साल बड़े होंगे उनके साथ ऐसी अंतरंगता का विचार रंच मात्र भी मेरे मन मैं नही था उनकी प्रखर बुद्धि और कार्यलयी दक्षता का सम्मान मेरे मन मैं जड़ें जमा रहा था और वे उलझे हुए कार्यालयी मसलों पर मेरे तर्कों से प्रभावित थे मुझे लगता मेरी मेघाविता का कोई तो कद्रदान है उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया और पत्नी तथा बच्चे से मिलाया उनकी पत्नी सरल और भली महिला थी, बच्चा प्यारा और कुशाग्र.....यूँ आने जाने का सिलसिला चला इसी सिलसिले में अखिल अकेले भी मेरे घर आने लगे.....संबंध नया रूप ले रहे थे तय नही कर पायी अखिल के साथ अपने संबंध को क्या नाम दूँ? अपने से झूंठ कैसे बोलूं? मेरा मन मेरा ही उपहास कर रहा था..... ‘पार्ट टाइम लिव इन पार्ट्नर’ ठीक रहेगा.....उपहास को मैने पचा लिया तब से वे मेरे ‘पार्ट टाइम लिव इन पार्ट्नर’ थे उनकी पत्नी से मुझे कोई शिकायत नहीं थी हमारी पार्ट्नरशिप ठीक चल रही थी
संबंधों का सच अजाना नही था, पर उन्हे निर्वस्त्र देखना आसान होता है क्या? अखिल और मैं रंग बिरंगी रोशनियों से नहाई सड़क पार कर रेस्तराँ की तरफ बढ़ रहे थे कि अखिल के कुछ परिचित मिल गये वे उनसे बात करने लगे मुझसे परिचय करवाना अखिल के लिए शायद गैर ज़रूरी था सो मैं पास की दुकान से अखिल के बेटे के लिए कहानी की किताब खरीदने घुस गयी बात करके अखिल रेस्तराँ की ओर तेज़ कदमो से बढ़ चले थे, मैं भी दुकान से निकलकर बढ़ने को ही थी कि सुनाई दिया “अरे यार ये इसकी बीबी नही.....रखैल.....क्या वो मिस्ट्रेस है “, और एक ठहाका .....मिस्ट्रेस, मिस्ट्रेस...... मिस्ट्रेस मेरे भीतर गूँजे जा रहा था पाँवो बीच जैसे कोई मोटी रस्सी आ गयी तो ‘लिव इन पार्ट्नरशिप’ का एक अर्थ यह भी है…… अचानक दादी ही आवाज़ आई…….’बिटिया अब भी संभल जा अँग्रेज़ी बोलने से शब्दों का निहितार्थ नही बदलता जिन सुखों को हीरा समझ कर तूने अपने झोले मे रखा है वे पत्थर है और अपने बोझ से तेरे झोले को फाड़ कर रास्ते मैं ही गिर जाएँगे और जब तू थक कर बैठेगी तो आसपास तेरे जैसे ही थके मान्दे लोग होंगे कौन किसे उठाएगा?” मैं तेज़ कदमो से रेस्तराँ की ओर बढ़ी अखिल भीतर मुझे ना देख लौट रहे थे मैने कहा “ मेरा सिर अचानक दुखने लगा है प्लीज़ मुझे घर छोड़ दो.....”
अखिल मुझे घर छोड़ कर, सरदर्द की गोली देकर चले गये हैं.....कल वे नहीं आएगें, पर ‘कल’ तो आएगा.....ज़रूर आएगा ‘कल’ के बाद भी ‘कल’ और उसके बाद भी ‘कल’ तब?
हवाओं में ध्वनियों की गूँज क्या कभी रुकती है?